कुछ अजीब सी कश्मक़श है,शायरी पढ़ने के बाद...
इनकी वाह पे हँस लूँ...कि मेरी आह पे रो लूँ ...
बड़े बदनाम है हम हो गए तेरे नाम को किताब पे उतार कर , और तुम हो कि आज भी मुह फेर के बैठे हो ,
Saturday, November 29, 2014
कुछ अजीब सी कशमकश...
नज़्म कहके बेच ना दें ...
बंद कर लूंगा अपने जज़्बातों को, गुमनाम पन्नों के साये में...
कि डर लगता है लोगों से ....मेरी कहानी को नज़्म कहके बेच ना दें ये
हम वो किताब है ..
पढ़ पाना मुझको को तो ,बता देना मुझको भी...
कि हम वो किताब है,जिसकी स्याही जरा धुंधली है...
बेवफ़ा कह ले या ...
तूने कहा तो पर,थोड़ी देर लगा दी कहने में...
अब चाहे बेवफ़ा कह तू मुझको,या ख़ुद्दार कह ले...
ये मौसम का बदलना है,या...
जो फिज़ा कुछ अलग सी महकनें लगी है आज शाम से ही...
ये मौसम का बदलना है,या तू बिन बताये मिलने आ रही है मुझसे...
दुआ होगी क़ुबूल सोचा ना था ..
दुआ होगी कुबूल कुछ इस तरह सोचा ना था ...
कि जिनकी राह तकते थे,वो हमसफ़र है बन बैठे ...
कई क़ातिल भी देखे ...
क़त्ल भी देखे थे और कई क़ातिल भी थे देखे पर....
झुकी पलकों के ख़ंजर चलाना कोई तुमसे सीखे ...
सलाम तेरे जज़्बे को ...
तेरे जज़्बे को सलाम करता हूँ हर पल....
तू सरहद पे जगता है जो , हम चैन की नींद लेते हैं...
इन पन्नो पे
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