यह कविता मैंने एक तस्वीर को देखते हुए लिखी थी ....और भगवान् से एक मुलाकात कर आया...उम्मीद है पसंद आएगी ....
बैठा दिया यूँ सोचने , दे दो नक्श मेरे सामने ,
जैसे मैं बिखरा रंगों में,या हूँ निकला कश्ती थामने
कैसी कहानी मै लिखूं ,हूँ मैं कवि किस काम का ,
कविता है वोह नाम की ,हासिल न हो जिसमे अंजाम सा ,
है दिख यह कस्ती मुझे ,समंदर से है जो लड़ रही ,
पानी में जैसे आग हो,नीचे से जैसे तप रही,
मैं देखता हूँ ख़ुद को वह ,नीला जहाँ सा दिख रहा ,
पानी में नाव ऐसे बह रही ,मस्ती में जैसे फूल खिल रहा ,
फ़िर लड़ रहा था दो पल बाद मैं ,ख़ुद की कलि के टूटने से,
सागर भी था प्यार में,चाहा था मुझको मेरे डूबने में ,
कुछ ही पलों के दौरान मैं ,अतीत के सौ पन्ने पड़े ,
सोचा की क्या क्या है काम बाकी ,है कुछ लोग मेरे बल पर खड़े ,
उस पल हुआ कुछ अँधेरा वहां ,फ़िर रंगीन आसमान हो गया ,
दिखने लगा वो इन्द्रधनुष ,जैसे मैं मौत में खो गया ,
वोह रौशनी थी मुझे कह रही ,इस तूफ़ान तू स्वीकार कर ,
लड़ बढ़ और काट पानी को ,इस दर्द को तू पार कर ,
क्या होगा जो तू हारेगा ,पहले ही मौत क्यूँ खोजता है ,
एक बार मिल जायें दर्द ,कोई बात नही ,कोशिश ये तू सौ बार कर ,
शायद तुझे दिख रहा ,किनारा न अब कोई दूर है,
ताक़त तुझे है दे रहा प्यार उसका ,माथे का जिसके तू सिन्दूर है ,
कैसे बताऊँ उस रौशनी को ,मुझको किनारा कोई न दिख रहा ,
झुकती सी जा रही ये नाव ये,हूँ हलचल में पानी की मिल रहा ,
न संभल रही ताक़त से अब ,रक्षा की ये ताबीज किन,
बाँधी जिसे उसे सिन्दूर ने है ,है पानी में मिलती हर चीज सी ,
कोशिश को कर ,क्यूँ थक रहा ,देखा है कल बस भगवान् ने ,
कह दूसरी साँस से तू ,आ पहली को तू थामने ,
अब अंत के करीब हूँ ,जैसे इश्वर से हूँ मैं मिल गया ,
था आशमा ना कभी इतना थमा , जितना था उस दिन दिख रहा ,
पानी अब बिल्कुल शांत है ,किनारा भी है आस पास में ,
कश्ती बयानी उस रौशनी में ,पानी जलाया उस आग ने ,
एक पल में है अब आँख खुली, पाता हूँ, लिखता ख़ुद को लोगों में,
चेहरे से सबके खो गया मैं ,या खो गया मैं अपनी सोचों में ,
मैं शुक्रिया तुम्हारा करता हूँ ,तुमने है सच वो बात की ,
मर के तो सब उससे मिलते है ,जी कर के मैंने मुलाक़ात की ,
जीतना और हारना कविता में ,बेईमानी की बात लगती है ,
लिखते ही उससे मिल गया ,अब कविता ये मेरी सजती है ,
.शशि'दिल से ....
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